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कविता

वृंदावन आग में दहे

जय चक्रवर्ती


वृंदावन
आग में दहे
कान्हा जी रास में मगन।

चाँद ने
चुरा ली रोटियाँ
पानी खुद पी गई नदी
ध्वंसबीज
लिए कोख में
झूमती है बदचलन सदी

वृंदावन
भूख से मरे
कान्हा जी जीमते रतन।

कैद में
कपोत-बुलबुले
साँसों में बिंधी सिसकियाँ
पहरे पर हैं
बहेलिए शीश धरे
श्वेत कलंगियाँ

वृंदावन
दहशतें जिएँ,
कान्हा जी भोगते शयन।

रोशनी की बात
कह गया
सूरज वो फिर नहीं फिरा
कोहरे की
पीठ पर चढ़ा
फिर रहा है वक्त सिरफिरा

वृंदावन
जागरण करे
कान्हा जी बाँटते सपन।


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